प्रस्तावना
आत्मषट्कम् (Atmashatkam), जिसे निर्वाणषट्कम् (Nirvanashatkam) भी कहा जाता है, एक अद्वैत रचना है जिसमें 6 श्लोक हैं। इसे आदिशंकराचार्य ने लिखा है और यह अद्वैत वेदांत की मूल शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह रचना आत्मा के नॉन-डुअलिज़्म पर आधारित है और इसे साधक की आत्म-ज्ञान की यात्रा में मदद करने के लिए माना जाता है।निर्वाण षटकम् आत्मा की वास्तविकता और ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति पर आधारित है।
निर्वाण षटकम् का महत्व
निर्वाण का अर्थ “निराकार” या “शांति की अवस्था” है। यह उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति सभी बंधनों और इच्छाओं से मुक्त होता है। निर्वाण का अनुभव करने पर आत्मा शाश्वत सुख और शांति का अनुभव करती है। यह अवधारणा अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्ण है और आत्मज्ञान की प्राप्ति की ओर ले जाती है।
षट्कम का अर्थ है छह या छह से मिलकर बना हुआ।
निर्वाणषट्कम् का मुख्य उद्देश्य मानव को उसके सच्चे स्वरूप से अवगत कराना है। यह जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने में सहायता करता है और आत्मा की अमरता का अनुभव कराता है।
शंकराचार्य: एक संक्षिप्त परिचय
आदिशंकराचार्य का जन्म लगभग 788 ईस्वी में दक्षिण भारत के कालड़ी में हुआ था। उन्होंने चारों वेदों, भगवद्गीता और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया और अद्वैत वेदांत की स्थापना की। शंकराचार्य ने भारत में वेदांत के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया और विभिन्न क्षेत्रों में अद्वैत के विचारों का प्रचार किया। उन्होंने भारत के चार कोनों में चार प्रमुख मठों की स्थापना की, जो आज भी अत्यंत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों की एक विस्तृत और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है।उनका जीवन साधना, ज्ञान और ब्रह्म की खोज में व्यतीत हुआ।
निर्वाण षटकम् के श्लोक
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहम्
न च श्रोत्रावजिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर न तेजो न वायुहु
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
अर्थ: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं | मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं | मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न च प्राण संग्यो न वै पंच वायुहु
न वा सप्त धतूर न वा पंच कोषः
न वक् पाणि-पदं न चोपस्थ पयउ
चिदण्डदण्ड रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
अर्थ: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं | मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं | मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे द्वेषा रागौ न मे लोभा मोहौ
न मे वै मदो नैव मात्सर्य भवः
न धर्म न चारथो न कामो न मोक्षः
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
अर्थ: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह | न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या | मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम्
न मंत्र न तीर्थं न वेद न यज्ञः
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्फा
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
अर्थ: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं | मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ | न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे मत्यौ शंका न मेजति भेदहा
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः
न बन्धुर न मित्रं गुरूर नैव शिष्यः
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
अर्थ: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव | मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य, | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभूर् व्यापा सर्वत्र सर्वेन्द्रियनम्
न च संगतं नैव मुक्तिर न बन्ध
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
अर्थ: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं | मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं, | न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं, | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
निष्कर्ष
निर्वाण षटकम् केवल एक शास्त्र नहीं है, बल्कि यह आत्मज्ञान की एक गहरी यात्रा है। यह शंकराचार्य की अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं का सार है, जो हमें अपने सच्चे स्वरूप को पहचानने में मदद करता है। जीवन की जटिलताओं और अज्ञातता के बीच, यह ग्रंथ एक प्रकाश की तरह कार्य करता है, जो हमें आत्मा की अमरता और ब्रह्म के साथ एकत्व की ओर अग्रसर करता है।
प्रस्तावना
आत्मषट्कम् (Atmashatkam), जिसे निर्वाणषट्कम् (Nirvanashatkam) भी कहा जाता है, एक अद्वैत रचना है जिसमें 6 श्लोक हैं। इसे आदिशंकराचार्य ने लिखा है और यह अद्वैत वेदांत की मूल शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह रचना आत्मा के नॉन-डुअलिज़्म पर आधारित है और इसे साधक की आत्म-ज्ञान की यात्रा में मदद करने के लिए माना जाता है।निर्वाण षटकम् आत्मा की वास्तविकता और ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति पर आधारित है।
निर्वाण षटकम् का महत्व
निर्वाण का अर्थ “निराकार” या “शांति की अवस्था” है। यह उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति सभी बंधनों और इच्छाओं से मुक्त होता है। निर्वाण का अनुभव करने पर आत्मा शाश्वत सुख और शांति का अनुभव करती है। यह अवधारणा अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्ण है और आत्मज्ञान की प्राप्ति की ओर ले जाती है।
षट्कम का अर्थ है छह या छह से मिलकर बना हुआ।
निर्वाणषट्कम् का मुख्य उद्देश्य मानव को उसके सच्चे स्वरूप से अवगत कराना है। यह जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने में सहायता करता है और आत्मा की अमरता का अनुभव कराता है।
शंकराचार्य: एक संक्षिप्त परिचय
आदिशंकराचार्य का जन्म लगभग 788 ईस्वी में दक्षिण भारत के कालड़ी में हुआ था। उन्होंने चारों वेदों, भगवद्गीता और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया और अद्वैत वेदांत की स्थापना की। शंकराचार्य ने भारत में वेदांत के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया और विभिन्न क्षेत्रों में अद्वैत के विचारों का प्रचार किया। उन्होंने भारत के चार कोनों में चार प्रमुख मठों की स्थापना की, जो आज भी अत्यंत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों की एक विस्तृत और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है।उनका जीवन साधना, ज्ञान और ब्रह्म की खोज में व्यतीत हुआ।
निर्वाण षटकम् के श्लोक
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहम्
न च श्रोत्रावजिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर न तेजो न वायुहु
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
अर्थ: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं | मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं | मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न च प्राण संग्यो न वै पंच वायुहु
न वा सप्त धतूर न वा पंच कोषः
न वक् पाणि-पदं न चोपस्थ पयउ
चिदण्डदण्ड रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
अर्थ: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं | मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं | मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे द्वेषा रागौ न मे लोभा मोहौ
न मे वै मदो नैव मात्सर्य भवः
न धर्म न चारथो न कामो न मोक्षः
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
अर्थ: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह | न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या | मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम्
न मंत्र न तीर्थं न वेद न यज्ञः
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्फा
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
अर्थ: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं | मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ | न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे मत्यौ शंका न मेजति भेदहा
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः
न बन्धुर न मित्रं गुरूर नैव शिष्यः
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
अर्थ: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव | मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य, | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभूर् व्यापा सर्वत्र सर्वेन्द्रियनम्
न च संगतं नैव मुक्तिर न बन्ध
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
अर्थ: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं | मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं, | न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं, | मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
निष्कर्ष
निर्वाण षटकम् केवल एक शास्त्र नहीं है, बल्कि यह आत्मज्ञान की एक गहरी यात्रा है। यह शंकराचार्य की अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं का सार है, जो हमें अपने सच्चे स्वरूप को पहचानने में मदद करता है। जीवन की जटिलताओं और अज्ञातता के बीच, यह ग्रंथ एक प्रकाश की तरह कार्य करता है, जो हमें आत्मा की अमरता और ब्रह्म के साथ एकत्व की ओर अग्रसर करता है।
Very Good Information and Shlokas.