Philosophy of Bhagavad Gita

गीता का दर्शन (Philosophy of Bhagavad Gita)

भगवद्गीता, जिसे सामान्यत: गीता के नाम से जाना जाता है, हिन्दू धर्म की अत्यधिक पवित्र और लोकप्रिय रचना है। वास्तव में, कहा जा सकता है कि हिन्दू धर्म का आधार भगवद्गीता ही है। यह महाभारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। विश्व-साहित्य में गीता जैसी रचना दुर्लभ है, गीता में केवल धार्मिक विचार ही नहीं, बल्कि गहरे दार्शनिक विचार भी निहित हैं। इसमें ईश्वर और आत्मा के संबंध, विश्व के निर्माण के सिद्धांत, और तत्त्वों के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की गई है। गीता में तत्त्वज्ञान, नैतिकता के नियम, ब्रह्म-ज्ञान और योग शास्त्र के विभिन्न पहलुओं का समावेश किया गया है। इसे भारतीय दर्शन का सार भी माना जाता है। गीता को उपनिषदों का सार भी कहा गया है, क्योंकि उपनिषदों के गहरे और विस्तृत सिद्धांतों को गीता ने सरल और प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया है। इस कारण यह कहा जाता है कि समस्त उपनिषद् गाय हैं, कृष्ण उनके दुहने वाले हैं, अर्जुन बछड़ा है, और विद्वान गीता रूपी अमृत का पान करते हैं। भगवद्गीता को संगीत की तरह रचित किया गया है, जिसे ईश्वर-संगीत कहा जाता है, क्योंकि इसमें स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने उपदेश दिया है।

अब प्रश्न यह उठता है कि गीता की रचना किस संदर्भ में हुई।
अर्जुन जब युद्धभूमि में युद्ध के लिए उतरते हैं, तब रण की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। लेकिन जब अर्जुन अपने सगे-संबंधियों को युद्धभूमि में देखते हैं, तो उसका हृदय अचंभित हो उठता है, और वह यह सोचकर कर्तव्य-हीन और निःसाहस हो जाता है कि उसे अपने आत्मीयजनों की हत्या करनी होगी। वह युद्ध की संजीवनी को छोड़कर बैठ जाता है, और उसकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है। अर्जुन का यह मनोबल टूटना, आत्मा के अंधकार में फंसने जैसा होता है। इस स्थिति को देखकर भगवान श्री कृष्ण उसे युद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित करते हैं। श्री कृष्ण के विचार, जो ईश्वर की वाणी माने जाते हैं, अर्जुन की स्थिति में एक नई ऊर्जा का संचार करते हैं। गीता के संवाद से युद्धभूमि की गूंज समाप्त होती है और हमें ईश्वर और मनुष्य के बीच एक गहन संवाद दिखाई देता है।

गीता की रचना महाभारत के महान संत और कवि व्यास ने की थी। आधुनिक काल में गीता पर कई महान व्यक्तियों ने कार्य किए हैं, जैसे कि बाल गंगाधर तिलक ने ‘गीता-रहस्य’, महात्मा गांधी ने ‘अनासक्ति-योग’ और श्री अरविंद ने ‘गीता-निवंध’ जैसे ग्रंथ लिखे हैं। डॉ. दास गुप्त के अनुसार, गीता भागवद् सम्प्रदाय का हिस्सा है, और इसे महाभारत से पहले रचा गया था। वहीं, डॉ. राधाकृष्णन का मत है कि गीता महाभारत का अभिन्न हिस्सा है। गीता के वचनों में कई दार्शनिक सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है, जिनमें कुछ सिद्धांतों का मिलान करना कठिन हो सकता है, क्योंकि गीता का मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक दृष्टिकोण को मजबूत करना है, और दार्शनिक विचार केवल उस उद्देश्य को समर्थन देने के लिए प्रस्तुत किए गए हैं।

उपनिषद और भगवद्गीता

भगवद गीता उपनिषदों से गहरे रूप से जुड़ी हुई है। उपनिषदों के सिद्धांतों को समझे बिना, गीता की गहरी और सूक्ष्म शिक्षाओं को पूरी तरह से समझ पाना मुश्किल हो सकता है। उपनिषदें ब्रह्म (सर्वोत्तम वास्तविकता), आत्मा (अत्मन), और मोक्ष (मुक्ति) जैसी बुनियादी अवधारणाओं को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करती हैं, जो गीता की शिक्षाओं के केंद्रीय भाग हैं।

चूंकि गीता इन ही विचारों पर आधारित है, यदि इन उपनिषदिक सिद्धांतों का ज्ञान नहीं है, तो गीता के गहरे अर्थों को पूरी तरह से समझ पाना कठिन हो सकता है। उपनिषदों में जो ब्रह्मा, चेतना, और अस्तित्व के बारे में गहरे दार्शनिक विचार दिए गए हैं, वे गीता में भी महत्वपूर्ण रूप से विद्यमान हैं। यदि इनका सही संदर्भ न समझा जाए तो गीता की कुछ श्लोकों का गलत अनुवाद या गलत अर्थ लगाया जा सकता है।

उपनिषदें जहां दार्शनिक आधार प्रदान करती हैं, वहीं गीता इन्हीं विचारों को एक व्यवहारिक, नैतिक और भक्ति के दृष्टिकोण से समझाती है। इसलिए, भगवद गीता की शिक्षाओं को पूरी तरह से समझने के लिए उपनिषदों का ज्ञान जरूरी है, क्योंकि ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और आत्मा की मुक्ति की राह को स्पष्ट करते हैं।

गीता का महत्त्व

गीता का विचार सरल, स्पष्ट और प्रभावशाली है, हालांकि इसमें उपनिषदों के विचारों की पुनरावृत्ति हुई है। उपनिषदों का ज्ञान गहन और विस्तृत होता है, जिसे सामान्य व्यक्ति के लिए समझना कठिन हो सकता है। 

गीता के समय, सांख्य के मत के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति आत्मा और प्रकृति के भेद को जानने से संभव मानी जाती थी। इसी प्रकार कर्म मीमांसा का विचार था कि व्यक्ति अपने कर्मों के माध्यम से पूर्णता प्राप्त कर सकता है। इसके अलावा, भक्ति और उपासना के माध्यम से भी ईश्वर की प्राप्ति का विचार था। उपनिषदों में ज्ञान, कर्म और भक्ति पर चर्चा की जाती है, लेकिन बाद में ज्ञान को प्रमुखता दी गई। गीता इन सभी विरोधाभासी विचारों का समन्वय करती है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है, “गीता विरोधात्मक तथ्यों को समन्वय कर उन्हें एक समष्टि के रूप में चित्रित करती है।” हालांकि, यह प्रश्न विवादास्पद है कि गीता इस समन्वय में कितनी सफल रही है।

आज के युग में गीता का अत्यधिक महत्व है। वर्तमान में मानवता के सामने अनेक समस्याएँ हैं, जिनका समाधान गीता के अध्ययन से प्राप्त हो सकता है। इसलिए, आधुनिक युग के लोगों को गीता से प्रेरणा लेनी चाहिए। गीता का मुख्य उपदेश लोक-कल्याण है। आज जब व्यक्ति स्वार्थ की भावना से प्रेरित होकर व्यक्तिगत लाभ के बारे में सोचता है, तो गीता उसे परार्थ-भावना की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान कर सकती है।

पाश्चात्य विद्वान विल्यम बॉन हम्बोल्ट ने गीता को किसी ज्ञात भाषा में उपलब्ध संभवतः सबसे सुंदर और एकमात्र दार्शनिक गीत कहा है। महात्मा गांधी ने गीता की सराहना करते हुए कहा कि जैसे हमारे लिए हमारी पत्नी संसार की सबसे सुंदर महिला होती है, वैसे ही गीता के उपदेश सभी उपदेशों से श्रेष्ठ हैं। गांधी जी ने गीता को प्रेरणा का स्रोत माना। गीता का मुख्य उपदेश कर्म-योग है, और इसलिए यह मानव को संसार का सही मार्गदर्शन दे सकती है। आज का मानव भी अर्जुन की तरह अनेक विचारों और भावनाओं के बीच संतुलन की तलाश में है, और इसके लिए गीता का अध्ययन अनिवार्य है। गीता में ईश्वरवाद पर पूरी तरह से चर्चा की गई है। गीता का ईश्वर सगुण, व्यक्तित्वपूर्ण और उपासना का विषय है। हालांकि गीता में निर्गुण ईश्वर की ओर भी संकेत मिलता है, फिर भी इसका मुख्य आधार ईश्वरवाद ही है।

गीता में योग

योग शब्द का अर्थ है ‘मिलना’ या ‘जोड़ना’। गीता में योग का अर्थ आत्मा का परमात्मा से मिलन है। गीता में योग का उल्लेख व्यापक रूप से किया गया है, जो केवल चित्त की वृत्तियों के निरोध तक सीमित नहीं है, जैसा कि अन्य योग-दर्शन में बताया गया है, बल्कि यह ईश्वर से मिलन का एक मार्ग है। गीता वह विद्या है, जो आत्मा को ईश्वर से जोड़ने के लिए विभिन्न अनुशासन और मार्गों का उल्लेख करती है, इसलिए गीता को ‘योग-शास्त्र’ भी कहा जाता है।

गीता में योग के तीन मुख्य प्रकारों का समन्वय किया गया है: ज्ञानयोग, भक्तियोग, और कर्मयोग। यह तीनों मनुष्य के मानसिक गुणों—ज्ञानात्मक, भावात्मक, और क्रियात्मक—के अनुरूप हैं। आत्मा जब बन्धन की अवस्था में होती है, तो बन्धन का नाश केवल योग से ही संभव है। योग आत्मा को उसके बन्धनों से मुक्त करके उसे ईश्वर की ओर मोड़ता है। गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति को मोक्ष प्राप्ति के विभिन्न मार्ग माना गया है।

साधारणतः कुछ दर्शन ज्ञान के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति का पक्ष रखते हैं, जैसे शंकर का अद्वैत वेदांत दर्शन। कुछ दर्शन भक्ति के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करने की सलाह देते हैं, जैसे रामानुज का विशिष्टाद्वैत दर्शन। कुछ दर्शन कर्म के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का समर्थन करते हैं, जैसे मीमांसा दर्शन। गीता में इन तीनों का समन्वय किया गया है, जो इसके समन्वयात्मक दृष्टिकोण को महत्वपूर्ण बनाता है।

अब हम तीनों प्रकार के योग की व्याख्या करेंगे:

1. ज्ञानयोग (The Path of Knowledge)

गीता के अनुसार, मानव अज्ञान के कारण बन्धन की अवस्था में होता है। अज्ञान का नाश केवल ज्ञान से ही संभव है, और इसलिए गीता में मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है। गीता दो प्रकार के ज्ञान को स्वीकार करती है: तार्किक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान।

  • तार्किक ज्ञान वह है, जो वस्तुओं के बाहरी रूप से उनके स्वरूप की चर्चा करता है और बुद्धि द्वारा उनका विश्लेषण करता है।
  • आध्यात्मिक ज्ञान वह ज्ञान है, जो वस्तुओं के आभास में छिपे सत्य का निरूपण करता है।

तार्किक ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहा जाता है, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान को ‘ज्ञान’ कहा जाता है। तार्किक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत रहता है, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान में यह द्वैत समाप्त हो जाता है। ज्ञान शास्त्रों का अध्ययन करके आत्मा का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त कर लेता है वह सब भूतों में आत्मा को और आत्मा में सब भूतों को देखता है। यह सब विषयों में ईश्वर को और ईश्वर में सबको देखता है। जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त कर लेता है यह मिट्टी का टुकड़ा पत्थर का टुकड़ा और स्वर्ण का टुकड़ा में कोई भेद नहीं करता है। ज्ञान की प्राप्ति के लिये मानव को अभ्यास करना पड़ता है। गीता में ज्ञान को प्राप्त करने के लिये पद्धति का प्रयोग हुआ है।

ज्ञान की प्राप्ति के लिए गीता में तीन पद्धतियाँ दी गई हैं:

  1. शुद्धता (Purification): जो व्यक्ति ज्ञान चाहता है उसे शरीर, मन और इन्द्रियों को शुद्ध रखना (Purification) नितान्त आवश्यक है। इन्द्रियाँ और मन स्वभावतः चंचल होते हैं जिसके फलस्वरूप वे विषयों के प्रति आसक्त हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मन दुषित हो जाता है कर्मों के कारण अशुद्ध हो जाता है। यदि प्रन और इन्द्रियों को शुद्ध नहीं किया जाय तो साधक ईश्वर से मिलने में बंचित हो जा सकता है क्योंकि ईश्वर अशुद्ध वस्तुओं को नहीं स्वीकार करता है।

  2. मन और इन्द्रियों का नियंत्रण: मन और इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा कर ईश्वर पर केन्द्रीभूत कर देना भी आवश्यक माना जाता है। इस क्रिया का फल यह होता है कि मन की चंचलता नष्ट हो जाती है और वह ईश्वर के अनुशीलन में व्यस्त हो जाता है।

  3. आत्मा और ईश्वर का तादात्म्य: जब साधक को ज्ञान हो जाता है तब आत्मा और ईश्वर में तादात्म्य का सम्बन्ध हो जाता है। वह समझने लगता है कि आत्मा ईश्वर का अंग है। इस प्रकार की तादात्मयता का ज्ञान इस प्रणाली का तीसरा अंग है।

गीता में ज्ञान को पुष्ट करने के लिये योगाभ्यास का आदेश दिया गया है। यद्यपि गीता योग का आदेश देती है फिर भी वह योग के भयानक परिणामों के प्रति जागरुक रहती है। ज्ञान को अपनाने के लिये इन्द्रियों के उन्मूलन का आदेश नहीं दिया गया है। ज्ञान से अमृत की प्राप्ति होती है। कर्मों की अपवित्रता का नाश होता है बौर व्यक्ति सदा के लिये ईश्वरमय हो जाता है। ज्ञान योग की महत्ता बतलाते हुए गीता में कहा गया है:

“जो ज्ञाता है वह हमारे सभी भक्तों में श्रेष्ठ है।”
“जो हमें जानता है, वह हमारी आराधना भी करता है।”

भक्ति-मार्ग (भक्तियोग)

भक्ति योग मानव मन के भावात्मक पक्ष को सशक्त करता है। यह ज्ञान और कर्म से अलग है। भक्ति शब्द ‘भज्‘ से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है सेवा। अतः भक्ति का अर्थ ईश्वर के प्रति समर्पण और सेवा होता है। भक्ति मार्ग की उत्पत्ति उपनिषदों की उपासना सिद्धांत से हुई है। इस मार्ग का पालन करने से साधक को स्वयं ईश्वर की अनुभूति होने लगती है। भक्ति मार्ग हर व्यक्ति के लिए खुला है, चाहे वह अमीर हो या गरीब, विद्वान हो या मूर्ख, उच्च या निम्न जाति का हो। जबकि ज्ञान मार्ग का पालन केवल ज्ञानी व्यक्ति ही कर सकते हैं और कर्म मार्ग का पालन अमीर लोग ही कर सकते हैं, भक्ति मार्ग सभी के लिए समान रूप से सुलभ है। यही विशेषता भक्ति मार्ग को अन्य मार्गों से अलग करती है।

गीता में ईश्वर को प्रेम के रूप में चित्रण किया गया है। जो व्यक्ति शुद्ध मन से ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण रखते हैं, उसे ईश्वर स्वीकार करता है। जो कुछ भी भक्त शुद्ध मन से ईश्वर को अर्पित करता है, वह स्वीकार किया जाता है। ईश्वर के भक्त का कभी पतन नहीं होता। जैसा कि भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है, “जो मुझे प्रेम से समर्पण करता है, वह मेरा प्रिय है।”

भक्ति मार्ग को अपनाने के लिए भक्त में नम्रता का होना अनिवार्य है। उसे यह समझना चाहिए कि ईश्वर के सामने वह कुछ नहीं है। भक्ति का स्वरूप अकथनीय होता है—जिस प्रकार एक गूंगा व्यक्ति मीठे के स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता, उसी प्रकार भक्त भी अपनी भक्ति का सही तरीके से शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता। भक्ति के लिए श्रद्धा का होना अत्यंत आवश्यक है। जब तक ईश्वर की आराधना भक्ति से की जाती है, तब तक मन में शुद्धता का विकास होता है और ईश्वर के चैतन्य का ज्ञान होता है।

भक्ति में प्रेम और प्रेमी के बीच का भेद मिट जाता है, और दोनों के बीच एकता स्थापित हो जाती है। एक सच्चा भक्त निरंतर ईश्वर के गुणों का स्मरण करता है और उनके ध्यान में तल्लीन हो जाता है। भक्ति के माध्यम से भक्त को ज्ञान की प्राप्ति होती है। जब भक्त का प्रकाश तीव्र हो जाता है, तो ईश्वर उसे सम्मान और आशीर्वाद से भी निहाल करते हैं। इस प्रकार भक्ति के द्वारा व्यक्ति पूर्णता की प्राप्ति करता है।

कर्मयोग (The Path of Action)

गीता का मुख्य उपदेश कर्मयोग कहा जा सकता है। गीता की रचना उस समय अर्जुन को कर्म के प्रति मोह उत्पन्न करने के उद्देश्य से की गई थी, जब वह निष्क्रिय और कर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। इसी कारण श्री कृष्ण अर्जुन को निरंतर कर्म करने का आदेश देते हैं। गीता का विषय मुख्य रूप से ‘कर्म-योग’ है। कर्म का अर्थ है आचरण, और सही कर्म से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। 

गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि शुभ कर्म वह है जो ईश्वर की एकता का ज्ञान दे, जबकि अशुभ कर्म वह है जो अवास्तविक या गलत उद्देश्य से किया जाता है। गीता के समय शुद्धाचरण के कई विचार प्रचलित थे। वैदिक कर्म के अनुसार, मनुष्य अपने आचरण को शुद्ध करके जीवन में सत्य प्राप्त कर सकता है। उपनिषदों में भी कर्म को सत्य की प्राप्ति का सहायक माना गया है, और गीता में भी सत्य की प्राप्ति के लिए कर्म करने का निर्देश दिया गया है।

गीता में सत्य की प्राप्ति के लिये कर्म को करने का आदेश दिया गया है। वह कर्म जो असत्य तथा अधर्म की प्राप्ति के लिये किया जाता है, सफल कर्म नहीं कहा जा सकता है। कर्म को अन्धविश्वास और अज्ञानवश नहीं करना चाहिये। कर्म को इसके विपरीत ज्ञान और विश्वास के साथ करना चाहिये। गीता में मानव को कर्म करने का आदेश दिया गया हैं। अचेतन वस्तु भी अपना कार्य सम्पादित करते हैं अतः कर्म से विमुख होना महान् मुर्खता है। एक व्यक्ति को कर्म के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। परन्तु उसे कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मानव की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि वह कर्मों के परिणामों के सम्बन्ध में चिन्तनशील रहता है। यदि कर्म से अशुभ परिणाम पाने की आशंका रहती है तब वह कर्म का त्याग कर देता है। इसलिये गीता में निष्काम-कर्म (Disinterested Action) को, अपने जीवन का आदर्श बनाने का निर्देश किया गया है। निष्काम-कर्म का अर्थ है, कर्म को बिना किसी फल की अभिलाषा से करना। जो कर्म-फल को छोड़ देता है वही वास्तविक त्यागी है। इसीलिये भगवान, अर्जुन से कहते हैं:

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।”

(तुम्हारा अधिकार केवल कर्म में है, फलों में नहीं। तुम कर्म के फल के कारण कर्म मत करो, और न ही कर्म के प्रति आसक्ति रखो।)

गीता यह प्रमाणित करती है कि हर व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित किया जाता है, लेकिन उसे निष्काम भाव से, अर्थात बिना किसी फल की इच्छा के करना चाहिए।

हालाँकि गीता कर्मफल के त्याग का आदेश देती है, लेकिन उसका उद्देश्य त्याग या संन्यास नहीं है। गीता में इन्द्रियों के दमन का आदेश नहीं है, बल्कि उन्हें विवेक द्वारा नियंत्रित करने की सलाह दी गई है। निष्काम कर्म की शिक्षा गीता का अनमोल उपहार है। लोकमान्य तिलक के अनुसार गीता का मुख्य संदेश ‘कर्म-योग’ है।

निष्काम कर्म के इस उपदेश से प्रेरित होकर अर्जुन युद्ध के लिए तत्पर हो गए। गीता और इमैनुएल कान्ट के विचारों में समानता यह है कि दोनों ने कर्तव्य को कर्तव्य के लिए करने की बात की है। ‘कर्म को कर्तव्य के लिए’ करने का मतलब यह है कि मनुष्य को कर्म करते समय केवल कर्तव्य के प्रति जागरूक रहना चाहिए, और कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।

कान्ट और गीता में एक समानता है कि दोनों ने लोककल्याण को कर्म का आधार माना है, लेकिन कान्ट ने इन्द्रियों को दमन करने का आदेश दिया है, जबकि गीता ने इन्द्रियों को विवेक के मार्ग पर नियंत्रित करने की सलाह दी है। गीता में इन्द्रियों को दमन करने वालों को पापी कहा गया है, जबकि कान्ट के अनुसार यह नैतिकता की आवश्यकता है।

गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का अद्वितीय समन्वय किया गया है। ईश्वर को ज्ञान, कर्म और भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति जिस मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करना चाहे, वह उसी मार्ग का अनुसरण कर सकता है। गीता में तीनों मार्गों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि ये तीनों मानव जीवन के तीन पहलू—ज्ञानात्मक, भावनात्मक और क्रियात्मक—का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तीनों मार्गों का अनुसरण करके मनुष्य ईश्वर के मिलन को प्राप्त कर सकता है, और यही गीता का सर्वश्रेष्ठ संदेश है।

ईश्वर-विचार (Concept of God in the Bhagavad Gita)

गीता में ईश्वर के दो पहलू प्रस्तुत होते हैं: एक तो वह सर्वेश्वर हैं, जो संसार में हर जगह व्याप्त हैं, और दूसरा वह निराकार रूप में परे हैं। कुछ श्लोकों में ईश्वर को विश्व में व्याप्त माना गया है। जिस प्रकार दूब में उज्ज्वलता निहित है उस प्रकार ईश्वर विश्व में निहित है। यद्यपि यह विश्व में निहित है फिर भी वह; विश्व की अपूर्णताओं से अछूता रहता है। इस प्रकार गीता में सर्वेश्वरबाद (Pantheism) का विचार मिलता है। कुछ श्लोकों में ईश्वर को विश्व से परे माना गया है। वह उपासना का विषय है। भक्तों के प्रति ईश्वर की कृपा दृष्टि रहती है। वह उनके पापों को भी क्षमा कर देता है। इस प्रकार गीता में ईश्वरवाद की भी चर्चा हुई है। गीता अवतारवाद को सत्य मानती है। ईश्वर का अवतार होता है। जब विश्व में नैतिक और धार्मिक पतन होता है तव ईश्वर किसी-न-किसी रूप में विश्व में उपस्थित होता है। इस प्रकार ईश्वर का जन्म धर्म के उत्थान के लिये होता है। श्री कृष्ण को भी इस प्रकार का अवतार समझा जाता है। यद्यपि गीता में सर्वेश्वरवाद की भी व्याख्या है फिर भी गीता की मुख्य प्रवृति ईश्वरवादी है। 

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